Inter caste love:- Part 7

उस दिन साथ चाय पीने के बाद कई दिनों तक पण्डित की देवसेना से मुलाकात न हुई, पण्डित को लगा शायद उनकी वजह से देवसेना ने कोचिंग आना ही बन्द कर दिया। उन दिनों पण्डित बहुत दुखी रहने लगे, दुख इस बात का नहीं था कि उनका प्यार मुकम्मल न हो सका, दुख तो इस बात का था कि कोई लड़की जिसको वह बेइंतहा चाहते हैं, उसने उनकी वजह से कोचिंग छोड़ दी, दुख इस बात का था कि उनकी वजह से उसे दुख हुआ होगा।

एक दिन पण्डित की क्लास कुछ देर से खत्म हुई। वह जैसे ही कोचिंग से बाहर निकले सामने से देवसेना आती हुई दिखाई पड़ी, पण्डित देवसेना को देख वहीं खड़े हो गये पर देवसेना उन्हें इग्नोर करते हुए कोचिंग चली गयी। तब पण्डित को पता चला कि मैडम ने 10:30 वाली बैच ज्वाइन कर ली है। पण्डित को थोड़ा सुकून मिला कि चलो देवसेना ने कोचिंग तो नहीं छोड़ी है पर उसका यूँ इग्नोर करना पण्डित को चुभ गया।

अगले दिन पण्डित क्लास से निकलनें के बाद फिर वहीं मोड़ पर खड़े होकर देवसेना का इन्तजार करने लगे। वो आयी और आज फिर से पण्डित को इग्नोर करके निकल जाना चाहती थी तभी पण्डित ने कहा:- पहचान नहीं रही हो क्या ? जो ऐसे अनदेखा कर रही हो ? तुम्हारा यूँ अनदेखा करना दिल को बहुत दुखाता है।

देवसेना कुछ बोले बिना ही अनसुना करते हुए चली गयी।

अगले दिन कोचिंग के बाद फिर से पण्डित मोड़ पर खड़े हो गये.. देवसेना आयी तो पण्डित ने रोक लिया। बोले देखकर, अनदेखा और सुनकर, अनसुना कर देने के पीछे की वजह क्या है ?

देवसेना बोली:- तुम्हें भूलने की कोशिश कर रही हूँ, ज्यादा नजदीकियां न बढ़ाओ, अभी तुम ही पसन्द आये हो कहीं तुम्हारा #कैरेक्टर पसन्द आ गया तो तुम्हें भुला नहींं पाऊंगी।

देवसेना तो आगे बढ़ गयी पर पण्डित वहीं खड़े रह गये, सोचने लगे, ये प्यार नहींं तो और क्या है ?

ये इश्क भी ना, आसान थोड़ी है… उसपर ये जिद्दी दिल, जो आसानी से मिल जाए उसकी मांग कहाँ करता है, जिद तो उसकी है जिसे पाया न जा सके।

अगले दिन पण्डित कोचिंग के बाद फिर से मोड़ पर खड़े हो गये, देवसेना आयी तो रोककर कह दिया:- बताया था तुमने  कि तुम भी प्यार करती हो मुझसे, रह नहीं सकती तुम भी मेरे बिना। मुझे ये भी पता है, याद करती हो मुझे हर उस पल जब तुम अकेले होती हो, ये हिचकियां मुझे यूँ ही नहीं आती। पर्यावरण पार्क मे आज शाम 5 बजे इंतज़ार करूंगा, मुझे पता है तुम आओगी,खुद को रोकने की कोशिश ना करना।

इतना कहकर पण्डित चले गये और देवसेना भी कोचिंग चली गयी।

शाम पांच बजने से पहले ही पण्डित पर्यावरण पार्क पहुंच गये और एक कोने में बने प्राकृतिक चबूतरे पर बैठ देवसेना का इन्तजार करने लगे। मन में बेचैनी थी कि वो आएगी भी या नहीं ? ऐसी स्थिति मे व्यक्ति आशा और निराशा के सभी पहलुओं पर खुद ही प्रश्न करता है और उत्तर भी खुद ही दे देता है और उत्तर ऐसा जिससे उसे आत्म संतोष हो। आखिर सभी अपनी अपनी कहानी के हीरो होते हैं और जब कहानी अपनी हो तो, अपनी कभी हार नहींं होती, हाँ वास्तविकता की बात और है।

पण्डित आशा और निराशा मे डूबे ही थे कि देवसेना आती हुई दिखाई दी, जब देवसेना कुछ पास आ चुकी थी तो पण्डित खड़े हो गये।

देवसेना ने पण्डित के पास पहुंंचते ही पण्डित के होठों पर अपने होंठ रख दिए और पण्डित को चूमने लगी, पण्डित आश्चर्य में पड़ गये, शरीर पहले की दशा मे यूँ ही खड़ा रहा, चेहरे पर आश्चर्य के भाव और शरीर उत्तेजित होने की जगह संवेदनहीन, देवसेना कभी होठों को चूमती तो कभी गालों को तो कभी माथे को, पण्डित के पवित्र प्रेम मे तो अभी ऐसी कल्पना भी नही हुई थी।

दो मिनट हुए होंगे, पर इस दो मिनट की याद सदियों तक रहने वाली है।

जब देवसेना ने पण्डित को चूमना बन्द किया तो उसकी आंखों मे आंसू थे, पण्डित को कुछ भी समझ नहींं थी कि ऐसे में क्या बोलें , वो तो अभी भी आश्चर्य मे ही डूबे थे। अगले पांच मिनट तक दोनों ऐसे ही खड़े रहे होंगें, देवसेना रोये जा रही थी और पण्डित आश्चर्य मे खड़े सिर्फ वास्तविकता और कल्पना मे अन्तर ढूँढने का प्रयास कर रहे थे। फिर देवसेना अपने आंसूओं को पोछते हुए बोली:- यही चाहते थे ना तुम ? लो अब हो गया, अब तो खुश हो ना ? हाँ अच्छे लगते हो तुम मुझे, प्यार हो गया है मुझे भी तुमसे, पर मेरी कुछ मजबूरियाँ है, कितनी बार कहना पड़ेगा तुमसे, मैं इतना आगे नहीं जाना चाहती जहाँ से लौटकर आना नामुमकिन हो जाए। नहीं जा सकती मैं अपने परिवार के खिलाफ और चलो पल भर को मान भी लूँ कि परिवार वाले किसी तरह समझ भी जाएँ तो क्या वो इस समाज की घटिया व्यवस्था के खिलाफ जा सकेंगे.. नहीं, कभी नहीं जा सकते।

और हाँ, आज भी रोक रही थी मैं खुद को, पर रोक न सकी और सच कहूँ तो रोकने के साथ साथ मैं आज फिर से मिलना चाहती थी तुमसे, तुम्हें बता देना चाहती थी कि तुम्हें ना देखूं इसीलिए कोचिंग का समय बदला है मैनें, और अब फिर से बदलने जा रही हूँ, अगर सच मे चाहते हो मुझे तो मेरी मजबूरियों को समझने की कोशिश करना।

देवसेना रोते हुए चली गयी और पण्डित वहीं बैठ गये और घण्टों तक बैठे ही रहे। जिन्दगी मानों रुक सी गयी हो, सांसें चल रही थी पर अब हवा मे वह ताजगी ना थी, दिल धड़क रहा था पर धड़कनों मे जीने का रोमांच न था,  कुछ सोचना चाहते थे, उसकी मजबूरियों को समझना चाहते थे पर दिमाग सोचने, समझने की स्थिति मे नहीं था। समझाना चाहते थे, दिल को। पर वो लोग और होंगे जिनके दिल मे भी दिमाग होता है, पण्डित का दिल तो जिद्दी है, नासमझ है, समझता भी तो कैसे ? भावुकता थी इस उलझन का इलाज, पण्डित का दिमाग जब कुछ सोचने, समझने की स्थिति मे आया तो पण्डित भावुक हो गये… हाए पण्डित, प्यार मे तुम हारे नहीं, तुम्हारी जीत हुई है। इतना प्यार करती है वो तुम्हें… रो रही थी, क्योंकि बिछड़न का दर्द उसे भी था… सच्चा प्यार यही तो है, अधूरा ही सही पर पूरा सा लगता है… हाँ पण्डित पूरा हो गया है तुम्हारा प्यार, वो भी तुम्हें उतना ही चाहती है, जितना तुम उसे।



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